Thursday, February 9, 2017

दिल्ली की सर्दी



वैसे कायदे से मुझे इस ब्लॉग का शीर्षक "गुरुग्राम " की सर्दी लिखना चाहिए, किन्तु अधिकतर भारतवासियों के  लिए दिल्ली एवं गुरुग्राम एक ही समान हैं।  ठीक उसी प्रकार जैसे मेरे कई उत्तर भारतीय मित्रों के लिए केरल, तमिल नाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में कोई भिन्नता नहीं रह गई है। वैसे तो यह बात मुझे इसलिए भी नहीं हजम होती, क्योंकि मुझे अपने उन दक्षिण भारतीय मित्रों से बहुत सहानुभूति है जिनकी संस्कृति की गुहार के आगे भी हमारी जहालत पर जूं तक नहीं रेंगती , लेकिन दरअसल  मेरी इस पीड़ा का मुख्य कारण कुछ और ही है।  असल बात यह है कि मेरे स्कूल के दिनों में मेरे माता-पिता और शिक्षकों ने जितनी घिसाई करवाई है, वह व्यर्थ हो, यह मुझे कतई स्वीकार नहीं। स्वीकार तो फिर भी एक नरम शब्द है। इस बात के गंभीरता का अनुमान आप ऐसे लगा सकते हैं कि जिस ज़माने में "मिले सुर मेरा तुम्हारा" दूरदर्शन पर आया करता था, मैंने स्कूल जाना शुरू ही किया होगा, किन्तु मेरे पिता बड़े ही उत्साह के साथ मुझे सारे कलाकारों के नाम से अवगत कराया करते थे-मतलब जितनी बार ब्रेक में ये गाना आये, उतनी दफा मेरा revision होता था ऐसा समझ लीजिये।  आप मुझे इस मामले  में नाज़ी भी मान सकते हैं। चूँकि हमारे प्रधान मंत्रियों को भी हिटलर की संज्ञा दी जा चुकी है , मुझे इस सन्दर्भ में कोई आपत्ति नहीं होगी।

बहरहाल भौगोलिक सूक्ष्मता की दृष्टि से गुरुग्राम एवं दिल्ली एक ही हैं।  और शायद सांस्कृतिक दृष्टि से भी। दक्षिण तथा उत्तर पूर्व भारत की  तुलना में तो बेशक।  इस हेतु हम भारतीयों की इस आतंरिक कलह को कुछ क्षणों के लिए दरकिनार करते हैं।  तो इस सर्दी ने मुझे किस प्रकार आहत किया, अभी के लिए ये बात अधिक महत्वपूर्ण है।  मेरी शिकायतों की सूचि बहुत ही लंबी है।

कोहरा तो यहाँ ऐसा छाता है कि पूछो मत।  इसकी अनुकंपा सारे भारत तक पहुँच जाती है। जाने ही कितनी ट्रेनें और हवाई जहाज़ लेट हुए हैं, और कितने घंटों लेट हुए हैं , इसकी पीड़ा आपको उस कॉर्पोरेट नौकर से जाननी चाहिए जिसने चेन्नई की हसीन सर्दियों में अपनी ३ घंटे की फ्लाइट पर  १८-२०  घंटे के बाद बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।  या नहीं तो वह युवती जिसकी घर जाने की योजना पर ऐसा पानी फिरा के उसकी ट्रेन २४ घंटे लेट हो गयी।  सुबह सुबह अलसा कर खुलती, कम्बल से छुप कर देखती आँखों को खिड़की से जिस दिन भी धुन्ध दिखा, समझो नींद का कोटा कुछ और बढ़ गया।  तापमान भले ही उतना काम न हो, लेकिन कोहरा सोते हुए मस्तिष्क को और भी सुन्न कर देता है, अगले महीने भर के मौसम के अनुमान देखने पर मजबूर कर देता है। उसे फ़िक्र नहीं है कि कम्बल में दुबक के मेरा काम कैसे होगा।  न ही ये फ़िक्र है कि कोहरे की बदौलत बढे आलस से मेरे शरीर में कुछ और किलो का इज़ाफ़ा हो सकता हैं।

अतः उसका साथ देने के लिए आते  हैं  हमारे कुछ और मित्र।  तेज़ हवा - जो पिछले २ वर्षों से मुम्बई में रह कर आये व्यक्ति को इतना कंपकपा दे की वह किसी भी दिल्ली वासी को एक कलकत्ता वासी का साक्षात् शारदीय रूप लगे।  बस इसी बात की एक ख़ुशी मिलती है के बिना धूम्रपान के मुँह से धुआँ निकालने का संतोष प्राप्त होता है। वर्ना हम तो गंगा किनारे की कड़कड़ाती शीत लहरी झेल चुके हैं। हमारे लिए तो मुम्बई , बेंगलुरु और चेन्नई में भी गर्म पानी से नहाना इज्जत पर आंच आने जैसा है। किन्तु दिल्ली , माफ़ कीजिये , गुरुग्राम में इस लिहाज़ से हम कुछ दिनों के लिए अपना  आंशिक धर्म परिवर्तन कर सकते हैं। इसे आपद धर्म कहते हैं।

मकर संक्रांति तक तो गजक रेवड़ी से मन बहल जाता है, लेकिन कुछ दिनों में जब माघ का महीना अपने जलवे दिखाने लगता है तो सर्दी घटने की मृग तृष्णा आपको कम स्वेटरों के बहाने कमर की रुला देने वाली पीड़ा का शिकार बना सकता है।  जो व्यक्ति शुचिता के बहाने से हर मामूली सी बात पे हाथ पैर धोने में विश्वास रखा करता था, सर्दी के भय से वह भी नास्तिक हो जाता है। आलस का आलम ये होता है कि रसोई में ठण्ड में खड़े रह कर बर्फ सा खाना गरम किया जाये खाने के पहले, या बस कम्बल में बैठ कर फटाफट खा लिया जाए। उत्तर कठिन नहीं होता। साधारण तया सरल उत्तर ही जीवन को सरस बनाते हैं।  आप इस पर बहस कर सकते हैं , लेकिन ये बहस आपको दिल्ली की सर्दी में ही करनी होगी। जूते की सोल से तलवे और हड्डियों में पहुँच रही उस वेदना को महसूस होगा।  हाईपोथर्मिया के डर पर विजय हासिल करनी होगी।  और साथ ही स्कूल यूनिफार्म सरीखे ओवरकोट और बूटों की फ़ौज में ना मिल जाने का भी यत्न अगर आप कर सकें, तो ही आप इस अनुभव के लिए योग्य हैं।  धन्यवाद।






1 comment: